Tuesday, 9 June 2015

मोदी के ढाका प्रवास के मौके पर यहां बसे बांग्लादेशियों से चर्चा


- सुजाता साहा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बांग्लादेश प्रवास से जहां भारत और बांग्लादेश में संबंध मजबूत हुए हैं, वहीं बांग्लादेश से भारत आए, और छत्तीसगढ़ के माना में बसाए गए शरणार्थियों की वो पुरानी भूलीबिसरी यादें ताजा हो गई। उन यादों को याद करते हुए उनकी आंखें नम हो जाती है। उनकी यादें और वतन एवं अपनों से बिछुडऩे का दु:ख भी था और नया जीवन की शुरूआत करने का सुखद आनंद भी। 
पचपन हजार शरणार्थियों में अब केवल 16-17 परिवार ही बचे हैं। ये परिवार 1971 में बांग्लादेश बनने के वक्त वहां से भारत आए शरणार्थी परिवारों से अलग हैं, और ये उसके काफी पहले 1964 में वहां के साम्प्रदायिक दंगों के बाद विस्थापित, और सरहद पार करके भारत आए हुए लोग हैं। राजधानी रायपुर के विमानतल के बगल की माना बस्ती में बसे हुए जिन परिवारों से बात हुई, वे 1971 के नहीं, बल्कि 1964 में आए हुए हैं। शुरूआती संघर्ष भरी जीवन यात्रा की गाथा सुनाते शरणार्थियों से बातचीत के अंश। 
नारायण सिंह मंडल
रिटायर्ड एलआईसी कर्मचारी नारायण सिंह मंडल (65) 1964 में पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से भारत आए थे। ढाका नीमतली में उनका जन्म हुआ था। एक साल ढाकेश्वरी में रहे। वर्ष 1964 में जब पूर्वी पाकिस्तान में सांप्रदायिक दंगा हुआ उस समय वे 12 बरस के थे। पिता की दंगे में मौत के बाद उनकी मां भवानी मंडल अपने तीन बच्चों और नाती के साथ भारत में शरण ली। 
मंडल ने प्रमाण-पत्र दिखाते हुए कहा कि वे रजिस्टर्ड शरणार्थी हैं। उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अनुरोध पर भारत में शरण मिली। उन्होंने बताया कि जिनके पास आरआर नंबर है वो सही शरणार्थी है और जिनके पास नहीं है वे अवैध रूप से यहां रह रहे हैं। 
नारायण मंडल ने बताया कि पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दू-मुस्लिम मिलकर रहते थे। पूजा-पाठ या कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम वे मिलकर ही मनाते थे। हर काम में मुस्लिम हिंदुओं का सहयोग करते थे। उन्होंने बताया कि 1947 में दंगे के तीन दिन बाद उन्हें समझ आया कि दंगा धर्म के नाम पर हुआ और देश का बंटवारा हो गया। इसी तरह 1952 में बांग्ला को राष्ट्रीय भाषा घोषित करने के लिए दंगा हुआ था। 
उन्होंने बताया कि वर्ष 1964-65 में बंगाल में अशांति फैली थी, मिल मजदूर अपनी 14 सूत्रीय मांगों को लेकर हड़ताल पर चले गए थे। इस हड़ताल को खत्म करने के लिए झूठी अफवाह फैलाई गई कि हजरत मोहम्मद साहब का बाल चुरा लिया गया है। इस अफवाह के चलते दंगा और बढ़ गया। करीब 55 हजार परिवारों ने बांग्लादेश से आकर भारत में अस्थाई कैंप में शरण ली। सरकार द्वारा इन्हें जमीन आदि देकर पुनवार्सित किया गया। मंडल ने बताया-मेरी नौकरी की वजह से मुझे रहने के लिए जमीन नहीं दी गई। 
मंडल ने बताया कि जब वे बांग्लादेश से आए, तो उनके पास कुछ भी नहीं था, इसलिए वे यहां शरणार्थी बनकर रहने लगे। जब वे यहां आए तो वे 5वीं में थे। आगे की पढ़ाई उन्होंने सरकार द्वारा संचालित स्कूल में पूरी की। माना के बारे में उन्होंने बताया कि यहां पहले 32 ब्लॉक थे। ब्रिटिश काल के मकान भी मौजूद थे, जहां चिकित्सालय, शिक्षा की व्यवस्था की गई थी, जो आज भी मौजूद है। सोशल सर्विस सर्टिफिकेट दिखाते हुए उन्होंने बताया कि वर्ष 1971 में भी यहां 25 हजार परिवार शरणार्थी बने। उनकी मदद करने पर उन्हें यह प्रमाण पत्र मिला। 
ढाकेश्वरी मंदिर के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि एक शक्ति पीठ होने की वजह से मंदिर प्रसिद्ध है। यहां काली और दुर्गा मंदिर हैं। दुर्गा मंदिर अधिक प्रसिद्ध है, जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दुर्गा माता के दर्शन कर आशीर्वाद लिया है। 
जगदीश दास
माना स्थित मात्री मिष्ठान भंडार के संचालक जयदीश दास (69), बांग्लादेश के बोरीसाल जिला के निवासी सोलह साल की उम्र में यहां अपनी मां व 6 अन्य लोगों के साथ शरणार्थी बनकर पहुंचे थे। उन्होंने बताया कि भारत में शांति है। सांप्रदायिक दंगों की वजह से पूर्वी पाकिस्तान में उस समय भय और आतंक का माहौल था। 
उन्होंने बताया कि 1964 में जब दंगे हुए तो, हम 6 दिनों तक छुपते-छुपाते रहे। वहां हमें स्थानीय बंगाली, मुसलमान साथियों ने बचाया। भावुक होकर श्री दास ने बताया कि उनके आंखों के सामने किस तरह से उनके साढू भाई की चाकू से गोद-गोदकर हत्या कर दी गई। कई लोगों की लाशें यूं ही बिखरी हुई थीं। किसी तरह फौजियों ने उन्हें बचाया। जब वे कलकत्ता (कोलकाता) आए तो, स्पेशल टे्रन से रायपुर आने में 6 दिन लग गए। 
बांग्लादेश वापस जाने के सवाल में उन्होंने कहा कि जितने भी शरणार्थी यहां आए वे वापस बांग्लादेश नहीं जाना चाहेंगे, क्योंकि वे भारत सरकार की मदद व अपनी सोच, मेहनत के सहारे काफी सक्षम हो गए है। उन्होंने बताया कि हमारा परिवार बढ़कर 32 हो गया है। सबका अपना काम-धंधा है और सभी आर्थिक रूप से सक्षम हैं। 
श्री दास ने बताया कि शरणार्थियों को यहां तीन कैटेगरी में रखा गया था, एक पीएल, दूसरा एग्री और एसटी। पीएल के तहत अनाथ लोगों को सहारा दिया गया। एग्री के तहत जमीन और एसटी के तहत दुकान आदि दी गईं। हमें 4100 रुपए और 5500 मूल्य की दुकान दी गई थी। उन्होंने बताया- हम जमीन-जायदाद सब छोड़कर ऐसे ही यहां आ गए। और अपनी मेहनत से आज फिर तरक्की कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि अब यहां सिर्फ 16-17 पुराने परिवार ही बचे हैं। 
उन्होंने पुराने दिनों को याद करते हुए कहा कि माहौल इतना खराब हो गया था कि महिलाएं सुरक्षित नहीं थीं। कब क्या घटित हो जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता था। रूआंसा होते हुए उन्होंने कहा कि पत्नी आज भी रात को डरकर उठ जाती है और रोती है। बहुत बुरे दिन थे। 
श्यामलाल डे
माना निवासी सब्जी विक्रेता 80 बरस के श्यामलाल डे 27 साल की उम्र में 15-16 लोगों के साथ भारत आए थे। पिता की मिठाई की बहुत बड़ी दुकान थी और वे खुद ढाके मिल में काम करते थे। 
'मिल में रहने की वजह से हम सब बच पाए और अपना सब कुछ छोड़कर वहां से भारत आ गए।Ó 
श्यामलाल डे के भतीजे दिलीप डे ने बताया कि 2 साल की उम्र में यहां आए, कुछ याद नहीं था, लेकिन दादा-दादी वहां के माहौल के बारे में बताते थे कि हिन्दुओं पर वहां बहुत अत्याचार होता था। मोदी के बांग्लादेश प्रवास के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि मोदी के बांग्लादेश जाने से वहां के निवासियों को काफी फायदा होगा। उन्होंने मोदी के बांग्लादेश यात्रा के दौरान दिए भाषण के बारे में कहा कि पूरा परिवार एक साथ उनका संबोधन सुन रहा था। ऐसा लगा मानो हम वहीं हैं। 
श्यामलाल डे की पत्नी सप्तमी डे ने बताया कि शादी के 35 साल बाद करीब 11 साल पहले अपने पिता से मिलने वह बांग्लादेश गई थी। सप्तमी डे भी अपने मामा मोनी महतो के साथ भारत में शरण ली थी। ढाकेश्वरी मंदिर के बारे में पूछने उन्होंने बताया कि घर के पास होने के कारण ढाकेश्वरी दुर्गा मंदिर तो हम हर रोज जाया करते थे, भोग खाने के लिए। उन्होंने बताया कि बांग्लादेश में उनकी 3 बहनें रहती हंै। पत्राचार तो नहीं हां फोन से सभी से बातचीत होती रहती है। उन्होंने बताया कि 1966 में उनकी शादी श्यामलाल डे के साथ हुई। उन्होंने बताया कि ढाकेश्वरी मंदिर के नाम से ही ढाका जिले का नाम रखा गया था। 
हरिनारायण मंडल 
माना निवासी हरिनारायण मंडल (50) ने बताया कि वे 2 बरस के थे तब माता-पिता यहां आए थे। शुरू से यहां रहने के कारण हमें यहां की नागरिकता मिल गई है। माता-पिता रजिस्टर्ड शरणार्थी थे। उनका परिवार भी दंगे में सबकुछ गवां कर यहां आया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बांग्ला संबोधन सुनकर दिल गद-गद हो गया। 'हम काफी खुश होंगे, अगर बांग्लादेश वासियों को भारतीय नागरिकता मिल जाए।Ó
एल एम विश्वास 
व्यवसायी एल एम विश्वास (58) ने बताया कि 1964 के सांप्रदायिक दंगे की वजह से उनका परिवार (माता-पिता, 5 भाई-बहन) ने यहां शरण ली थी। उनके साथ और भी कई लोग यहां आए, जिनमें से कुछ पंखाजूर में रहते हैं। वहां उन्हें रहने व खेती के लिए जमीन दी गई है। उन्होंने बताया कि एसटी कैटेगरी के तहत माना में लोगों को दुकान दी गई हैं। 
उन्होंने बताया कि उस वक्त के अविभाजित पाकिस्तान के फौजी तानाशाह याहया खान ने पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में दंगा करवाया था। भारत सरकार ने शरणार्थियों की पूरी मदद की। 'मुझे सरकारी नौकरी भी लगी थी, लेकिन सिर्फ 1600 रुपए वेतन होने के कारण मैंने नौकरी छोड़कर अपना खुद का व्यवसाय किया।Ó नागरिकता के सवाल में उन्होंने कहा कि इतने वर्षों से यहां रह रहे हैं तो यहां की नागरिकता मिल ही गई है। 
विश्वास की पत्नी शामली विश्वास ने बताया-हमारा परिवार भी यहां शरणार्थी के तौर पर निवास कर रहा था। मेरी शिक्षा सरकार द्वारा संचालित स्कूल में ही हुई है। दोनों परिवार की पसंद से हमारी शादी हुई थी। 

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